*क्या हमनें सच में भगवान शिव के संदेश को सुना : डॉ चरणसिंह केदारखण्डी।*


बदलता गढ़वाल/सम्पादक: चरणसिंह केदारखण्डी:
क्या हमनें सच में भगवान शिव के संदेश को सुना ?

रुद्रप्रयाग। आज से 10 साल पहले ठीक इसी समय पर केदारनाथ में जो हुआ वो मानवीय शब्दावली और समझ के लिए तब भी बेबूझ और अप्रत्याशित था…और अब भी है।

लगभग 10 मिनट में पूरा केदारनाथ शमशान हो गया …चारों ओर चीख पुकार, रेत के महलों की तरह दरकते -खिसकते भवन, मंदाकिनी की मटमैली काया में समाते लोग…. हर तरफ़ त्राहिमाम ! त्राहिमाम !

ईश्वर की सर्वशक्तिमानता और मनुष्य की दयनीयता- दैन्यता का करुण खंड काव्य !

इस घटना के जिगर में एक विरोधाभास, एक बिडंबना भी समाहित है क्योंकि 2013 से पहले केदारघाटी के लोगों में एक लोकोक्ति प्रचलित थी : विपदा में बचने के लिए केदारनाथ जाएंगे ! 2013 के अनुभव ने लोक की इस समझ को उलट दिया।

केदारनाथ में अनवरत बारिश और चोराबाड़ी ताल के फटने से उत्पन्न flash flood, सैलाब की भेंट चढ़े लोगों के अलावा अफरा तफ़री में जंगली रास्तों पर भूख-प्यास, प्रियजनों के वियोग में दम तोड़ने वालों, भय, मायूसी और बियावान में तड़प तड़पकर दम तोड़ने वाले हज़ारों लोगों की कथाएं भी कम कारुणिक नहीं हैं…और शर्मनाक हैं लुटे पिटे लोगों के साथ लूटपाट की दास्तानें भी …

इस आपदा के अगले कुछ महीनों तक मैं सहज नहीं हो पाया (मेरा अनुमान है कि बहुत सारे लोग नहीं हो पाए होंगें)क्योंकि तीर्थ स्थल होने के कारण जहाँ पूरे देश -प्रदेश को अपार मानवीय क्षति पहुँची , वहीं पूरी की पूरी केदारघाटी लगभग सुबकियों का गाँव बन गई…। आपदा का ‘दूरदर्शन’ करना और उसे तपते अंगारों की तरह हथेलियों पर महसूस करना–इन दोनों बातों में ज़मीन आसमान का अंतर होता है …केदारघाटी के लगभग हर गाँव से दहाई अंकों में लोग इस आपदा की भेंट चढ़े (लेखक के गाँव से 17 ) । कुछ लोग बदहवास -सी हालत में 10-20 दिन बाद घर लौटे… कुछ के परिजनों ने उनके लौटने की असंभव आस, Chimera, आज तक नहीं छोड़ी है …वे छोड़ेंगे भी नहीं, ख़ास तौर पर किशोरों की माताएं । मुझे तोषी गाँव मे लीला देवी से मुलाक़ात याद आती है जिसने अपने घर के सामने वाले पहाड़ पर अपने बेटों को मरते देखा है…कुछ ब्याही बेटियों (ध्याणियों) ने ससुराल और मायके पक्ष के सभी पुरुषों को खो दिया …कालीमठ- चौमासी से लेकर तोषी त्रियुगीनारायण तक, रांसी गौंडार से लेकर बसुकेदार तक –हर दिशा में मातम और मायूसी ….

इसके पिछले साल 2012 में 13 सितंबर को ऊखीमठ में बादल फटने से 72 लोगों की जान गई थी तब किसी ने सोचा भी नहीं था कि आगामी वर्ष में इससे कई गुना प्रचंड महाविपत्ति ,catastrophe, इस घाटी का इंतज़ार कर रही है।

इस आपदा को राजनीति, विज्ञान, धर्म- लोक आस्था और अध्यात्म जगत से जुड़े लोगों ने अपने-अपने ढंग से परिभाषित किया और उन सबके अपने -अपने मत और निष्कर्ष हैं । लेकिन जिस चीज़ पर लगभग एकमत हुआ जा सकता है वह यह है कि : केदारनाथ सहित हिमालय के तीर्थ तपस्या, शांति और सबसे अधिक मुक्ति के धाम हैं । वैज्ञानिक और आध्यात्मिक दोनों दृष्टियों से इन तीर्थों का वातावरण बहुत संवेदनशील है । इन स्थानों पर सामान्य विचरण करने के भी अपने नियम क़ायदे, मान्यता और मर्यादाएं होतीं हैं । हम इन तीर्थों को अराजकता, अव्यवस्था, शोरगुल, बेहताशा भीड़, मनोरंजन और सैरसपाटे के हॉटस्पॉट में नहीं बदल सकते हैं । और बदलते हैं तो बिना शिकवा शिकायत के ख़ुशी ख़ुशी परिणाम झेलने के लिए भी तैयार रहें !

तीर्थों में जाने के लिए आर्थिक स्थिति और समय की उपलब्धता से कहीं अधिक आवश्यक है : मानसिक तैयारी और तीर्थ की गरिमा के अनुसार आचरण करने का संकल्प ।

माफ़ कीजिये लेकिन तीर्थों के प्रति श्रद्धा और पवित्रता से भरा इस प्रकार का संकल्प राजनीतिक व्यवस्था नहीं जाग्रत कर सकती, इसके लिए व्यापक रूप से समाज को स्वयं ही अपने ऊपर काम करना होगा। राजनीतिक लोग समाज का ही आईना होते हैं । जैसा समाज होता है, वैसी ही राजनीति होती है।

शिव काँच की बनावटी भव्यता और कृतिम रोशनी का उजाला नहीं चाहते हैं….
वे चाहते हैं निर्दोष श्रद्धा और हृदय की दिव्यता के जगमगाते दीप…

उत्तराखंड भारत की धरती पर देवभूमि है ,एक ऐसी धरती जिसके गाँव – गाँव में, हर धार-खाल में प्रकृति ने अजूबों की नेमतें छोड़ी हुई हैं …जिसका एक समृद्ध इतिहास, गौरवशाली परंपरा और संभावनापूर्ण भविष्य है। इस पहाड़ी राज्य का हर क्षेत्र धार्मिक, सामाजिक ,ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विविधता और संपन्नता का कोलाज है। हर जगह कुछ न कुछ ख़ास है जिससे भारत और विश्व अनजान है। राजनीति इतनी कृपा कर सकती है कि इस धरोहर को सही तरह से देश- दुनिया के सामने पेश करे ताकि ‘चार धाम यात्रा’ पर उत्तराखंड (विशेष रूप से गढ़वाल मंडल) की आर्थिक जीवन रेखा होने का दबाव कम हो सके । क्योंकि जब तक ये दबाव रहेगा, तीर्थों की दशा दयनीय होती रहेगी, भले ही तीर्थों पर कारोबार करने वाले लोग कुछ समय के लिए मालामाल हो जाएं।

मेरी निजी राय यह है कि जब तक उत्तराखंड के लोग पानी से अधिक शराब का सेवन कर रहे हैं तक तक वे अपने आप को देवभूमि का निवासी न बताएं !

चरणसिंह केदारखंडी, हिमालय

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