विद्या जब सचमुच अंतर में जाती है तो वहाँ आग लगा देती है, विचार बदल देती है। अगर आप भी विद्या के बारे में जानना चाहते हैं तो “जंगल चिठ्ठी” पुस्तक को पढ़िए।

“विद्या जब सचमुच अंतर में जाती है तो वहाँ आग लगा देती है, विचार बदल देती है: “जंगल चिठ्ठी” पुस्तक।

डॉ.चरणसिंह केदारखण्डी द्वारा जंगल चिठ्ठी पुस्तक की समीक्षा कर उसका विस्तृत वर्णन किया गया है।

“जो शिक्षक बच्चों के हृदय को पहचानता है …वही बच्चों के जीवन के प्रति सबसे अधिक न्यायपूर्ण विचार कर सकता है”

जोशीमठ।

“जंगल चिठ्ठी” पुस्तक से जो कि शिक्षा के चरितार्थ पर प्रकाश डालती है, की समीक्षा कर पुस्तक का सार प्रस्तुत किया है। आज ही के दिन यानी 26 अगस्त 1954 को ओडिशा के अंगुल जिले के एक गाँव , चम्पतिमुण्डा में शिक्षा को लेकर एक स्वप्नदर्शी ने एक विद्यालय खोला जिसे, “जंगल स्कूल” कहा गया ।

उत्तर बुनियादी शिक्षा(post basic education) को समर्पित इस विद्यालय का आदर्श था महात्मा गांधी के शैक्षिक दर्शन को व्यावहारिक स्वरूप देना । यह प्रयोग भारत की प्राचीन गुरुकुल परंपरा का आधुनिक संस्करण था जहाँ प्रकृति के सानिध्य में 24 घंटे शिक्षा को जिया जाता था…और गुरु और शिष्य एक दूसरे से सीखते थे।

जीवन की विराट संभावनाओं के साथ अनूठे प्रयोग करने वाले ये स्वप्नदर्शी मनीषी थे प्रो. चित्तरंजन दास जिन्हें उनके अनुयायी और ओडिशा के मित्र स्नेह से “चित्त भाई” पुकारते हैं । उड़िया साहित्य में चित्तरंजन दास एक बहुत प्रतिष्ठित नाम है। चित्तरंजन दास ने ही श्रीअरविन्द के प्रतिनिधि ग्रंथों का अँग्रेजी से उड़िया में स्तरीय अनुवाद किया है…

चित्तरंजन दास के गुरु-गंभीर लेखन और लेखकीय अंतरदृष्टि का मुरीद उत्तराखंड का बुद्धिजीवी वर्ग उनकी क़िताब “शिलातीर्थ” को पढ़कर हुआ जिसमें 1950 के दशक की चार धाम यात्रा परम्परा और उत्तराखण्ड के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन का प्रामाणिक इतिहास समाहित है। समाज विज्ञानी और घुमक्कड़ लेखक भाई डॉ. Arun Kuksal ने शिलातीर्थ की बड़ी प्रशंसा की और किताब पर एक पठनीय समीक्षा लिखी। Mukesh Prasad Bahuguna जी भी शिलातीर्थ के सम्मोहन से प्रभावित हैं।

उड़िया और अँग्रेजी में लिखने वाले चित्त भाई की उक्त क़िताब का सरल और सरल अनुवाद किया है श्रीअरविन्द आश्रम पॉन्डिचेरी में साधनारत हमारीं बड़ी बहिन डॉ. अर्चना मोदी ने । अब अर्चना दीदी ने चित्त भाई की एक दूसरी प्रसिद्ध पुस्तक “जंगल चिठ्ठी” ( अँग्रेजी में ये क़िताब Letters from a Forest School के नाम से उपलब्ध है) का बहुत सरल, सुपाठ्य और सुबोध अनुवाद किया है। शिक्षा जैसे विषय पर चित्त भाई के सर्वकालिक प्रासंगिक चिंतन को हिंदी भाषी समाज तक पहुंचाने के इस साधना कर्म पर अर्चना दीदी को हार्दिक बधाई और साधुवाद ।

चित्त भाई का पूरा जीवन एक परिव्राजक फ़क़ीर का रहा। उनके जीवन और दर्शन पर महात्मा गांधी, महर्षि श्रीअरविन्द और गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर का प्रभाव रहा है। भारत के अतिरिक्त उन्होंने पश्चिमी जर्मनी, फिनलैंड और इस्राएल में भी अध्यापन कार्य किया और इन देशों की शिक्षा प्रणाली के प्रभावी सूत्रों को आत्मसात करके ही उन्होंने “जंगल स्कूल” की कल्पना को मूर्तिमान किया था ।

ग़रीब, मुख्यधारा से विलग और ग्रामीण पृष्ठभूमि के बच्चों के विकास को ध्यान में रखकर खोले गए जंगल स्कूल को खोलने, चलाने की समस्याओं और इस प्रयोग से सीखे गए सबकों , व्यावहारिक समस्याओं और अनुभवों को ही अपनी चिठ्ठी के द्वारा प्रस्तुत किया है चित्तरंजन भाई ने । जो लोग भारत के मन को पढ़ते हुए वास्तव में शिक्षा के भविष्य के लिए चिंतित हैं और कुछ ठोस करना चाहते हैं उन्हें “जंगल चिठ्ठी” के 214 पृष्ठों में समाहित इस ऋषि चिंतन से ज़रूर गुजरना चाहिए।

विचार, बोध और नवोन्मेष की अनेक संभावनापूर्ण खिड़कियां हैं इस क़िताब में ….

इस क़िताब में इंडिया और भारत वालों को दी जाने वाली अलग – अलग शिक्षाओं की चर्चा है, शिक्षा के स्वरूप, शिक्षण के स्वरूप और प्रभावी प्रणालियों , पाठ्यक्रम और शिक्षा प्रणाली को लेकर कई आयामों से चर्चा की गयी है । आज़ाद भारत के प्रारंभिक 10 वर्षों के भीतर शिक्षक की दशा पर भी मार्मिकता से मंथन हुआ है , यथा–

‘बच्चों को मानवीय बनाने का दायित्व जिनके ऊपर है, उनकी स्थिति सेवक से भी सात गुना हीन हो गई है” (पृष्ठ 79)

पुस्तक की कई चिठ्ठियों में फ़िनलैंड और डेनमार्क के स्कूली मॉडल की सारगर्भित मीमांसा की गई है क्योंकि लेखक ने स्वयं इन देशों में शिक्षण किया है और उनकी शिक्षा प्रणाली को जिया और जाना है।

पुस्तक की कई पंक्तियाँ सूत्र रूप में बहुत कुछ कह देतीं हैं यथा,

“शिक्षा के क्षेत्र में लोकतंत्र आने पर भी देश में वृहदतम क्षेत्र में लोकतंत्र संभव होगा” (p.80)

लेक्चर झाड़ने में माहिर कई विद्यामार्तण्ड और तर्कशास्त्री शिक्षक साथियों को चित्त भाई समझाते हैं कि श्रेष्ठ शिक्षक वह जो जो बच्चे के हृदय को भेदता है, उसकी हृदय की संभावनाओं का विकास करता है–

“हम बच्चे के मस्तिष्क को जान गए हैं …परंतु हृदय के विषय में सम्पूर्ण रूप से अनविज्ञ हैं …जो शिक्षक हृदय को पहचानता है , वही बच्चों के जीवन के प्रति सबसे अधिक न्यायपूर्ण विचार कर सकता है”( पृष्ठ 8)

भारत में आज भी शिक्षा में सफलता का मानक अंकों की अंधी और निरर्थक प्रतिस्पर्धा है । शिक्षा के द्वारा आदम, आदमी कितना बन सका, इसका कोई मूल्यांकन नहीं है । मुख्यधारा की व्यवस्था में इस तरह की सोच को किसी तरह का प्रोत्साहन भी नहीं है।

देश में भूख और ग़ुरबत के कारण शिक्षा से वंचित लाखों करोड़ों लोगों की पीड़ा को लेखक ने बखूबी बयां किया है। शिक्षा न पाने का अर्थ है जीवन की उच्चतर संभावनाओं का अंत । भूखे पेट सोने वालों, चमकीले राजपथों पर अपनी हड्डियों का अलाव बनाकर भारत को निर्मित करने वाले कामगारों के लिए चित्त भाई इस तरह व्याकुल हैं —

भूखे उदर वाले मनुष्य के अंदर भी अशेष कल्पनाओं और सपनों की विपुलता है …आज समाज में जो बोझ उठा रहा है , जो हल चला रहा है, जो लोहे को पीट रहा है , जो रास्तों का निर्माण कर रहा है ,उसके अंदर भी इंसान बनने और सम्मान पाने की अनंत पिपासा है…(102)

अपनी चिठ्ठियों में बार बार लेखक असमानता और शोषण के पोषण पर आधारित समाज व्यवस्थाओं को ललकारते हैं । उनकी बात सीधे हृदय के मर्म को छूती है और पाठक व्याकुल हो उठता है …कभी कभी एक अपराधबोध से भर जाता है… गवाही देने के समय मूक रहने, कुछ कर दिखाने के वक़्त पर खामोश रहने का अपराधबोध उसे शर्मसार कर देता है ।

शिक्षकों के लिए उनकी पुकार है कि वे निर्भीक होकर कार्य करें हालाकिं व्यवस्था उन्हें ऐसा होते नहीं देखना चाहती है । इस निर्भीकता में स्वतंत्र चिंतन का साहस भी शामिल है —

देश के शिक्षक आज बिल्कुल भी निर्भीक नहीं हैं । उनकी स्वाधीन सोच और विवेक को अनेक प्रकार के नियमों के द्वारा दबा दिया जाता है …वे शिक्षा के कारख़ाने में केवल दिहाड़ी मजदूर होकर रह गए हैं”( पृष्ठ 80)

चित्त भाई डेनमार्क की शिक्षा प्रणाली की सराहना करते हैं और विद्रोह और हटकर सोचने की उस संस्कृति की चर्चा करते हैं जिसे अपनाकर Kristen Kold ने डेनमार्क की शिक्षा में क्रांति उत्पन्न कर दी…(75)

भारत में स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक की शिक्षा राजाज्ञा(G. O.) के जरिये दिल्ली से संचालित होती है…! दुमका में क्या चलेगा, ये दिल्ली तय करती है । डेनमार्क में ठीक उल्टा होता है । जो छात्र, शिक्षक और उनके अभिभावकों को उचित लगता है वही पाठ्यक्रम बन जाता है !

“शिक्षक और अभिभावक गोष्ठी में एक साथ बैठकर जो तय करते हैं , उसी को सरकार का अनुमोदन भी प्राप्त होता है । स्थानीय आवश्यकताओं और बच्चों के भविष्य पर दृष्टि रखकर स्कूल के अंदर बैठकर वे जो जो नियम गढ़ते हैं, वही स्कूलों के नियम बन जाते हैं….वहाँ यदि अभिभावकों और शिक्षकों ने तय किया कि बच्चे केवल सर्दी के मौसम में पढ़ेंगे और गर्मी के मौसम में माता पिता के साथ खेत के कार्य में हाथ बटायेंगे तो वही विद्यालय का आचरित नियम बन गया “(पृष्ठ 81)

पुस्तक में कई दूसरे देशों के विकास की प्रेरक कहानियाँ भी हैं। मसलन, यातना शिविरों की सिसकियों से इस्राएल किस तरह फीनिक्स पक्षी वाली जिजीविषा के साथ खड़ा हुआ, इसका रहस्य पृष्ठ 84 पर है।

एक आदमी जब बहुत कुछ देखता है तो उसकी बात/संवाद/रचना विश्व ज्ञानकोश का आकार ले लेती है…वह शिक्षा का मूर्तिमान रूप बन जाता है, उसका साथ स्वयं एक शिक्षा होता है । चित्त भाई ने गहराई वाली इस ऊँचाई को छू लिया था ।

इस पुस्तक की प्रारंभिक 24 चिठ्ठियों में लेखक का चिंतन है और बाद के 5 लंबी चिठ्ठियों में विद्यार्थियों के साथ संवाद है, जंगल स्कूल को लेकर उनका फीडबैक है, सवालों के उत्तर हैं, भारत और विश्व के समाज की संरचना के प्रश्न हैं और युवाओं के सुझाव हैं।

पुस्तक: जंगल चिठ्ठी
लेखक: चित्तरंजन दास
मूल भाषा उड़िया
हिंदी में अनुवाद: डॉ अर्चना मोदी ,
श्रीअरविन्द आश्रम पॉन्डिचेरी
पृष्ठ 215
मूल्य 320
प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट
अहमदाबाद गुजरात
071- 25322655

【चरणसिंह केदारखंडी, जोशीमठ हिमालय】

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